Monday, April 11, 2016

एक अधूरा सफ़र 2

मेरी किताब 
नाम : एक अधूरा सफ़र
लेखाक : साइम इसरार
पेज :2
जैसे जैसे बड़े होते गये शरारते और भी बढ़ने लगी थी 2 साल बाद पापा ने अम्मी के कहने पर डॉल्फ़िन स्कूल जो की नया नया खुला ही था और बड़ी शोहरत थी उस में दाख़िला करा दिया अब नया स्कूल था, नये साथी और नये शिक्षक
लेकिन हम वही थे बस स्कूल जाने का तारिका बदला पहले तांगा होता था अब स्कूल बस कुछ नये दोस्तों के साथ अब नये सफ़र का आगाज़ था कुछ किताबो का वज़न भी बढ़ गया था और माँ बाप की उम्मीदे भी लेकिन नादानी में हमें कहा फ़िक्र थी हम तो बस बड़ी ईमारत और खेल का मैदान देखने में ही खुश थे शरारत करते और टीचर्स से मार खाते लेकिन फिर नादाँन गलतिया दोहराते कभी किसी की साइकल फेक देते तो कभी किसी को झूले से धक्का दे देते आप ज़रूर सोचते होंगे कितने शरारती थे लेकिन बच्चे तो होते ही है शरारती कोई कम कोई ज़्यादा बस हमारी गिनती ज़्यादा वालो में थी स्कूल में हर कोई नाम से जनता था और जो नाम से नही जनता वो काम से जरूर जनता होगा आज भी उम्मीद है कोई भी हो साइम का नाम याद होगा स्कूल से घर आते वक़्त बस में सीट के पीछे लड़ाई तो आम बात थी रोज़ कोई न कोई नयी शिकायत घर पहुचती और पापा के गुस्से का सामना करना होता पिटाई लगती तो कभी दादी बचाने भगती तो कभी अम्मी ज़्यादातर दादा ही आते थे जिस दिन पिटाई का प्रोग्राम होता तो पहले ही सबको बतादेते थे पापा के मुह से यही निकलता "बस एक यही शैतान है और बच्चे क्यों नही " लेकिन हम सुधरने वाले कहा थे आखिर बचपना ही तो था स्कूल से फ़ारीक होकर घर पहुचते तो अम्मी कहती बेटा थक गया है अम्मी खाना खिलाकर सुला देती हम तो मक्कारी कर लेटे रहते लेकिन उनकी आँख लगते ही हम निकल जाते और अपने आम के बागो में पूरी दोपहर काट देते उस वक़्त क़ुरान पाक पढ़ने का भी वक्त 4 बजे का होता तो भागकर मस्जित पहुचते वरना हाफिज साहब का दंडा हमारे लिये तैयार होता वहा भी मार खाते क्यों की दिमाग में हर वक़्त मस्ती सवार रहती उम्र 6 साल होगी बच्चे ही तो थे आखिर, शाम को 7 बजे रात के खाने के बाद वही चटाई वही लैम्प वही किताबे और मेरी माँ उनके साथ उनका डंडा गलती होने पर कभी प्यार से समझाना और कभी पिटाई खाना यह आम बात थी शायद वो अपने दिल पर पत्थर रखकर मरती थी ताकी बेटा पढ लिखकर उनका नाम रौशन करे कोई कहता यह कुछ नही करपयेगा कोई कुछ कहता कोई कुछ लेकिन मेरी माँ को मुझपर पता नही क्यों इतना यकीन था वो हमेशा कहती मेरा बेटा मेरा नाम रौशन करेगा बहुत मेहनत करती जितनी देर मै जगता उतनी देर वो जागती कभी प्यार करती कभी डाट लगाती खुद कुछ भी कहलेती पर कोई दूसरा कुछ कहता तो लड़ जाती सिर्फ मेरे लिये उन्हें मालूम था मैं शैतान हु लेकिन मेरी माँ तेज़ धुप में पेड़ की तरह मुझे साया देती और दुआ देती हर वक़्त मेरा ख्याल रखती और मेरा सहारा बनती शायद मुझ अन्धे की लाठी की तरह काम करती थी  मेरी प्यारी अम्मी ●●●●●●●●●
【सफ़रआगे जारी रहेगी】
किताब का नाम : एक अधूरा सफ़र
लेखाक : साइम इसरार


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