Thursday, April 28, 2016

सफ़रनामा ( हॉस्टिल )


किताब "एक अधूरा सफ़र"
★★★ सफ़रनामा ( हॉस्टिल )★★★

सफरनामा एक हॉस्टल में रहने वाले बच्चे की कहानी है कुछ यादे है, कुछ शरारत और कुछ अधूरे सपने है माँ बाप और सब से दूर एक अलग दुन्या कुछ पाने की चाहत में कुछ खोने का ग़म और आधे अधूरे हम।।

आगे की शिक्षा के लिये सितारगंज के एक नामी स्कूल जिसका आज नाम "होली सेपियन्स" है वहा एडमिशन कराया गया ,कुछ मेरे खास रिश्तेदार जिनके बच्चे उस स्कूल मे पढ़ते थे, जो हमारे बड़े हमदर्दे थे उन्होंने मेरी माँ से कहा तुम्हारे बच्चों का एडमिशन बहुत मुश्किल है वहा नही होपयेगा , वहा बड़े नियम कानून है लेकिन मेरी माँ को यह बात थोड़ी अजीब लगी मै छोटा ज़रूर था पर इतना न समझ भी नही था की उनकी बात को न समझ पाता शायद वो हमें कमतर समझ रहे होंगे , फ़िलहाल अम्मी की जद्दोजहद से पापा ने वहा दाखिला करादिया ,स्कूल का सफ़र लम्बा था तो शाम को घर पहुचते पहुचते शाम होजाती थी उम्र को देखते हुए थक जाता था, उस समय कक्षा 4 में था पाप ने मेरी शैतानी और लम्बे सफ़र को देखते हुए हॉस्टिल में एडमिशन करा दिया माँ बाप से दूर बिलकुल अकेला सोच कर बड़ी ख़ुशी होरही थी ,अब जाने की तैयारी होने लगी कुछ दिन गुज़रे और वो रात आगायी जिसकी सुबह अपनी माँ से अलग जाना था ,हमेशा अलग सोता था पर उस दिन न जाने क्यों अपनी माँ के पास जाकर सोया , और बहुत रोया था पूरी रात मनो आखो में गुज़र गयी सुबह होते ही पापा ने अम्मी से मुझे तैयार करने को कहा कोशिश कररहा था के आसू न निकले पर जज़्बातों पर किसका बस चलता है जनाब और मै तो बच्चा ही था घर से निकलते वक़्त दादा दादी ने सर पर हाथ रखा अम्मी ने प्यार करा और मै चल पडा दो चार कदम ही आगे बड़ा था के अचानक पीछे मुड़कर देखा अम्मी की नम आँखे आपने आसू छुपाना चाहा रही थी, मुझसे रहा नही गया बागता हुआ अपनी माँ के गले लगकर खूब रोया तब पहली बार लगा माँ बाप से दूर जाने का अहसास क्या होता है जितना मै रोया उतना ही मेरी माँ रो रही थी , लेकिन बेटे को पढ़ाने की खातिर आपने से दूर करना ही बेहतर समझा होगा और शुरू होगया मेरा नया सफ़र दिन तो किसी तरहा पढ़ने लिखने और खेल कूद में कट जाता लेकिन खाना खाते वक़्त अपनी माँ के हॉत की रोटी को याद करता था, नींद घर के बिस्तर को याद करती ,आँख में आसू आजाते यादो को याद करके ,रात को जब बिस्तर पर जाता तो माँ की याद आती मुझे लगता मेरी माँ यही कही है , अक्सर रातो को छुप छुप कर रोया करता था ,जब कभी कोई बात याद आती तो आपने भाइयो की याद में खोजाता शुरूरात के कुछ दिन बड़े मशक्कत के गुज़रे कभी पापा की डाट याद आती तो कभी अम्मी का प्यार , शायद एक आदत सी होगयी थी उन सब की ज़िन्दगी का एक हिस्सा ही अलग होगया था ,कुछ नए दोस्त ज़रूर बने थे लेकिन भाइयो की जगह कोई नही लेसकता उस वक़्त महसूस हुआ ज़िन्दगी क्या है एक अधूरी ज़िन्दगी जीने चल पड़ा था  एक छोटा बच्चा , उसी भी मेरी दोस्ती मेरे ही तरह दिखने वाले एक सोहेल नाम के लड़के से हुई कुछ ही दिन में हम लोग बहुत सारे दोस्त बन गए जहां जाते साथ जाते जहां सोते साथ सोते बिल्कुल सगे भाइयों की तरह हम लोगों में रिश्ता कायम हो चुका था उसका और मेरा कमरा अलग-अलग था लेकिन अक्सर मैं उसी के साथ जा कर सोता या कभी वह मेरे पास आ जाता कभी किसी से लडाई होती तो दोनों एक साथ हो जाते एक बार किसी बात पर मेरी उससे लड़ाई हो गई मुझे इंग्लिश बोलना नहीं आती थी यू आई सिर्फ ध्यान रहता वहां की कुछ याद नहीं था दोस्तों में अक्सर लड़ाई होती हैं वैसे की लड़ाई हमारी थी शाम तक फिर बोलने लगी और एक साथ खाना खाया जब कभी भी उसकी मां हॉस्टल आती थी तो मुझे भी उसी की तरह प्यार करती हैं और जब मेरी मां की तो ऐसा ही उसके साथ होता पूरे हॉस्टल में हम तो ही लड़के मुसलमान थे इसलिए कहां की शैतानियों में हम लोग अक्सर साथ हुआ करते थे वह बचपन आता और बचपन की बातें थी पता नहीं कहां कहां की बातें बैठे-बैठे कर लिया करते ना जाने कितना झूठ सच और कितनी कहानियां सुनाइए जाती थी लेकिन उस वक्त वही मेरा भाई साहब जो मेरे नाम आंसुओं को पूछने के लिए अपना रूमाल आगे कर देता था आज वह न्यूजीलैंड में है अभी कुछ दिन पहले उससे मुलाकात हुई थी दोनों एक दूसरे के गले ऐसे लगे कि मानो वक्त वही थम गया हूं

●●●सफ़र अभी जारी रहेगा●●●
किताब :एक अधूरा सफ़र
दूसरा पड़ाव:
##सफ़रनामा ( हॉस्टिल )##
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Wednesday, April 27, 2016

पेज 3 एक अधूरा सफ़र

   किताब का नाम "एक अधूरा सफ़र"
  ★★★ एक शरारती बच्चा ★★★
पेज 3

कुछ ख़ास बाते जो आज भी ज़हन में ताज़ा है वो हँसने पर मजबूर करती है जब भी याद आती है तो चेहरे पर एक अलग बहार लाती है , रोज़ एक नया काण्ड तो समझो आदत सी होगयी थी , वैसे तो मास्टर साहब से मार खाना आम बात थी और शरारत भी नयी नयी होती थी, एक हमारी साथी जो लड़की थी उस लड़की को बड़ा परशान करते उस से नए नए नाम से परशान करते थे,रोज़ यही रहता एक दिन उसने तंग आकर शिकायत करदी तो मास्टर साहब ने जमकर मार लगायी आज भी याद है वो पिटाई वो लड़की और वो मास्टर साहब भी बस कुछ दिन गुज़रे ही थे की मेरी माँ की ताब्यात ख़राब होगयी , चाचा हमें पढ़ाने लगे और चाचा ने ही एग्जाम के वक़्त हम को पूरी तैयारी कराते मेरे चाचा जो की मेरे उस्ताद (शिक्षक) भी रहे है वो मुझे हर छोटी से छोटी चीज़ बड़े प्यार से तो कभी डाट कर समझते थे, सच बताऊ तो उनसे डर भी बहुत लगता था लेकिन नादान बचपन कहो या बेवकूफी पूरा पेपर आते हुए भी सिर्फ पास होने के बराबर करकर आया दोस्तो ने पूछातो तो कहता क्यों खली मेहनत करू लिखने में, आता सब है पर नंबर पास होने लायक ही ज़रूरत है एक अलग ही सोच थी , जब घर आते तो पेपर के सवाल पूछे जाते हमेशा पूरा पेपर सुनाता , बड़ी शाबाशी मिलती शायद नादाँ था या बेवकूफ जब रिजल्ट आया तो सिर्फ पासिंग नंबर देखकर चाचा को यकीन नही हुआ स्कूल में जाकर कॉपी देखी गयी अब क्या होना था वहा तो सब खाली था , जितना लिखा था नंबर उतने ही मिले प्रिंसिपल ने पूछा तो जवाब नही दिया आखो में आसू थे और थोड़ी शर्म भी थी क्योंकि शाम को पिटाई होनी तै थी जब घर पंहुचा तो मेरे दोस्तों को भी बुलाया गया उनसे भी पूछताछ हुई मनो कोई चोरी करी हो हा धोका तो दिया ही था , उन्होंने वही बात बतादी जो "मै कहता था लिखने की क्या ज़रूरत है आता सब है बस पास ही तो होना है ", बस इतना सुनते ही चाचा ने पास में रखे हुये डंडे से खूब पिटाई की बछाने भी कोई नही आया क्यों की गलती बहुत बड़ी थी जमकर पिटाई हुयी अम्मी ने भी मार लागई चाचा ने भी और पापा ने भी नही बक्शा शायद पापा के दिमाग में हॉस्टिल का आईडिया तभी आया होगा क्यों की क्यों की कुछ दिन बाद हॉस्टिल में भर्ती करदिया गया था अब शुरू होता है होस्टल का सफ़र

●●● आगे जरी रहेगा●●●
किताब "एक अधूरा सफ़र"

Sunday, April 17, 2016

लोग साथ छोड़ देते हैं बीच सफ़र मैं जब
यादें खुशनुमा हमसफ़र बनके साथ निभाती है
"एक अधूरा सफ़र"

Monday, April 11, 2016

एक अधूरा सफ़र 2

मेरी किताब 
नाम : एक अधूरा सफ़र
लेखाक : साइम इसरार
पेज :2
जैसे जैसे बड़े होते गये शरारते और भी बढ़ने लगी थी 2 साल बाद पापा ने अम्मी के कहने पर डॉल्फ़िन स्कूल जो की नया नया खुला ही था और बड़ी शोहरत थी उस में दाख़िला करा दिया अब नया स्कूल था, नये साथी और नये शिक्षक
लेकिन हम वही थे बस स्कूल जाने का तारिका बदला पहले तांगा होता था अब स्कूल बस कुछ नये दोस्तों के साथ अब नये सफ़र का आगाज़ था कुछ किताबो का वज़न भी बढ़ गया था और माँ बाप की उम्मीदे भी लेकिन नादानी में हमें कहा फ़िक्र थी हम तो बस बड़ी ईमारत और खेल का मैदान देखने में ही खुश थे शरारत करते और टीचर्स से मार खाते लेकिन फिर नादाँन गलतिया दोहराते कभी किसी की साइकल फेक देते तो कभी किसी को झूले से धक्का दे देते आप ज़रूर सोचते होंगे कितने शरारती थे लेकिन बच्चे तो होते ही है शरारती कोई कम कोई ज़्यादा बस हमारी गिनती ज़्यादा वालो में थी स्कूल में हर कोई नाम से जनता था और जो नाम से नही जनता वो काम से जरूर जनता होगा आज भी उम्मीद है कोई भी हो साइम का नाम याद होगा स्कूल से घर आते वक़्त बस में सीट के पीछे लड़ाई तो आम बात थी रोज़ कोई न कोई नयी शिकायत घर पहुचती और पापा के गुस्से का सामना करना होता पिटाई लगती तो कभी दादी बचाने भगती तो कभी अम्मी ज़्यादातर दादा ही आते थे जिस दिन पिटाई का प्रोग्राम होता तो पहले ही सबको बतादेते थे पापा के मुह से यही निकलता "बस एक यही शैतान है और बच्चे क्यों नही " लेकिन हम सुधरने वाले कहा थे आखिर बचपना ही तो था स्कूल से फ़ारीक होकर घर पहुचते तो अम्मी कहती बेटा थक गया है अम्मी खाना खिलाकर सुला देती हम तो मक्कारी कर लेटे रहते लेकिन उनकी आँख लगते ही हम निकल जाते और अपने आम के बागो में पूरी दोपहर काट देते उस वक़्त क़ुरान पाक पढ़ने का भी वक्त 4 बजे का होता तो भागकर मस्जित पहुचते वरना हाफिज साहब का दंडा हमारे लिये तैयार होता वहा भी मार खाते क्यों की दिमाग में हर वक़्त मस्ती सवार रहती उम्र 6 साल होगी बच्चे ही तो थे आखिर, शाम को 7 बजे रात के खाने के बाद वही चटाई वही लैम्प वही किताबे और मेरी माँ उनके साथ उनका डंडा गलती होने पर कभी प्यार से समझाना और कभी पिटाई खाना यह आम बात थी शायद वो अपने दिल पर पत्थर रखकर मरती थी ताकी बेटा पढ लिखकर उनका नाम रौशन करे कोई कहता यह कुछ नही करपयेगा कोई कुछ कहता कोई कुछ लेकिन मेरी माँ को मुझपर पता नही क्यों इतना यकीन था वो हमेशा कहती मेरा बेटा मेरा नाम रौशन करेगा बहुत मेहनत करती जितनी देर मै जगता उतनी देर वो जागती कभी प्यार करती कभी डाट लगाती खुद कुछ भी कहलेती पर कोई दूसरा कुछ कहता तो लड़ जाती सिर्फ मेरे लिये उन्हें मालूम था मैं शैतान हु लेकिन मेरी माँ तेज़ धुप में पेड़ की तरह मुझे साया देती और दुआ देती हर वक़्त मेरा ख्याल रखती और मेरा सहारा बनती शायद मुझ अन्धे की लाठी की तरह काम करती थी  मेरी प्यारी अम्मी ●●●●●●●●●
【सफ़रआगे जारी रहेगी】
किताब का नाम : एक अधूरा सफ़र
लेखाक : साइम इसरार


"एक अधूरा सफ़र"

  ★★★ एक शरारती बच्चा ★★★★
बचपन से थोडा शैतान था और बच्चों से थोडा अलग कभी किसी लड़के की शर्ट फाड़देता तो कभी किसीकी पैंट उतार देता बचपन मे नानिहल वालो का काफी चाहिता था तो मांमा 3 साल की उम्र मे बरेली ले आये थे कुछ दिन वहा के संत वंदिस स्कूल में पढ़ा लेकिन सही माइनो में शुरूरत की शिक्षा अपने पैतृक गाँव करघेना के पास अमरीया के इंग्लिश स्कूल से की शायद कक्षा 1 की बात होगी सुबह सुबह के वक़्त अपनी तायाज़ात बड़ी बहने जो सगी तो नही थी सच बताऊ तो सगी से कम भी नही थी उन्होंने कभी यह महसूस नही होने दिया की में अकेला हू  उनके साथ एक शैतान लड़का जिसकी पीठ पर एक स्कूल का बस्ता और हाथो में मोमफलि लेकर स्कूल जाता कुछ खता और कुछ नहर में फेक देता कुछ यादे धुंदली होगयी है लेकिन आज भी याद है हर वो लम्हा , हर वो बचपन की शरारत  लेकिन उस समय  स्कूल न जाने का रोज़ बहाना बनाता और पापा की डाट के सामने मजबूरन स्कूल को जाता दिन भर पढ़ई तो शायद ही कुछ करता था दिन भर लोगो को परशान करना और स्कूल की छुट्टी का इन्तिज़ार करना जैसे ही छुट्टी का घंटा बजता सबसे पहले अपनी बहनो के पास जाता कभी वो डाटती तो कभी कान पकड़ती और कभी नादान बातो पर हस्ती शायद वो मुझसे उतना ही प्यार करती जितना मे शैतानी करता था पूरे दिन की हर बात एक साँस में अपनी बहनो को बताता खुश होता और कभी रोता तो कभी हस्ता हुआ घर जाता रास्ते का सफ़र 5 km का था पता ही नही लगता था घोंडा कितनी तेज़ चलता था या मेरी शरारत में वक़्त गुज़र जाता होगा मेरा दोस्त सलमान जो बचपन से काफी वक़्त साथ रहा है आज विदेश में है लेकिन उस से इतना लड़ता कभी वो मुझे मरता कभी मै उसे लेकिन सबसे ज़्यादा खुश भी उसी के साथ होता था शायद उस वक़्त फिकरों से अनजान था शाम को हम सब ताया के घर इख्ठा होते  और मस्ती करते उसके बाद जब घर जाते तो कुछ शरारतो की शिकायत भी साथ जाती थी मेरी माँ जो मुझे प्यार तो बहुत करती पर उतना ही डाँटती भी थी पापा से बहुत डरता था लेकिन पापा 7 बजे के बाद आते थे उसे पहले ही चुपचाप खाना खेलते थे और चीकू के पेड़ के नीचे आगंन में चटाई बिछा कर मिटटी के तेल से जलते हुये लैंप की रौशनी मे अपनी किताबो को लेकर बैठ जाते कुछ देर तो मन लगाकर पढ़ते और पापा के पास कोई आजाता तो उनकी बाते सुनने में मस्त हो जाते खुली ख़िताब हमारा मुह तकती रहती कभी लैंप पर रबर घिसते कभी कॉपी पर कुछ लिखते यही सिलसिला चलता रहता रात को 10 बजते ही हमें सोने को कहा जाता तो हम ख़ुशी से पागल होजाते एसा लगता जेल से ज़मानत हुयी हो पर अम्मी के बराबर में सोते हमारी माँ हमारे लिये सपने बुनती की बेटा यह बनेगा बेटा वो बनेगा हमे लगता पता नही हमे पढ़ाकर इन्हें क्या मिलेगा क्यों यह हमपर ज़ुल्म कररहे है हमारे माँ बाप ,लेकिन शायद हम से ज़्यादा फ़िक्र हमारे अम्मी पापा को थी पापा दिन रात मेहनत करते और माँ दिन भर घर का काम करती हम तो बस मस्ती कररहे थे ●●●●●●●

लिखना अभी बाकी है

मेरी किताब "एक अधूरी सफ़र "
के लिये दुआ की गुज़ारिश
लेखक: साइम इसरार

Sunday, April 10, 2016

हाल ए दिल

एक लंबे इंतज़ार और तुम्हारा अचानक मिलना
कितना खूबसूरत है तुमसे एक बार मिलना
कुछ दो चार बाते और दिल को सुकून मिलना
बहुत मुश्किल है तुम जैसे फूल का खिलना

सालो बाद वो अचानक तुम से बात करना
तुम्हारे होटो से लफ़्ज़ों ए बया जो करना
वक़्त ए शब और उनका रोज़ इन्तिज़ार  करना
बहुत मुश्किल है इज़हार ए दिलशाद करना

Wednesday, April 6, 2016

शहादत को सलाम

✒✒ साइम इसरार के कलम से आज की हकीकत
📌📌
"मैं देश नहीं झुकने दूँगा" भी एक चुनावी जुमला साबित हो ही गया"

सच बात यह है हम कितना भी लिखले लेकिन तनज़ील सहाब की शाहदत के सामने कुछ भी नही लिख सका हूँ वो मासूम बच्चे , वो अस्पताल में ज़िन्दगी से जंग लड़ती वो मासूम बच्चों की माँ वो शहादत वो खून से लथ पथ लाश आखिर क्या कुसूर था उन मासूम बच्चों का जिन्हें एक पल में उनकी आँखो के सामने यतीम करदिया गया और वो औरत जिसको उसकी आँखो के सामने बेवा करदिया यह हमला तनज़ील सहाब पर नही कानून व्यवस्था पर हमला है उन तमाम लोगो पर हमला है जो ईमानदारी से अपने काम को आजम देरहे है आज तनज़ील सहाब और उनकी बीवी है तो कल कोई और यह सिलसिला यह खून की होली कब थमेगी खुदा जाने लेकिन
पठानकोट हमले की जांच करने वाले NIA के अफसर शहीद तंजील अहमद की हत्या इस बात की ओर इशारा करती है कि शायद कोई बहुत बड़ा सच उनके हाथ लग गया था जिस वजह से उन्हें रास्ते से हटा दिया गया क्यों की वो एक क़ाबिल अफसर थे शायद हेमंत करकरे की तरहा लेकिन
इस वारदात को बड़ी साजिश के तहत अंजाम दिया गया है तंजील अहमद मूलरूप से बिजनौर के सहसपुर के रहने वाले थे वह परिवार के साथ दिल्ली में रहते थे पर उनको  क्या मालूम था की इस जाच में शामिल होने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी वो मासूम बच्चे यतीम होजाएंगे सोचने वाली बात यह है की यह तनज़ील सहाब पर पहला हमला नही था तो उनके साथ कोई खास सिक्योरिटी क्यों नही थी , जिस तरह से 28 फायर हुए, यानि क्लेशनव या 9 एम् एम् के तीन असले इस्तेमाल हुए यह साधारण अपराधी का काम नहीं है
कई सवाल खड़े करती है यह हत्या लेकिन बहादुर जांबाज़ डिप्टी एसपी तनज़ील अहमद साहब ने देश के दुश्मनो के ख़िलाफ़ जंग में अपनी जान देकर देश के लिये अपने फ़र्ज़ को अंजाम दिया
अल्लह आपकी मग़फ़िरत करें।और जन्नत में आला मुक़ाम से नवाज़े

"वतन पे मिटने का हमारा दस्तूर रहा है।।
जिन्हें मालूम नही ये उनका क़सूर रहा है